Tuesday, November 19, 2013

ताल

ताल : धा धीं धिं धा |

समय गतिमान है. इसकी गति को हम टुकडो में बाँट देते है. जैसे वर्ष, महीने हफ्ते इत्यादि. कुछ गतियां तय टुकडो में बांटी गयी है. पृथ्वी का घूमना चौबीस घंटे में ही होता है. एक घंटे को ६० बराबर टुकडो में बांटा गया है. न कम न ज्यादा. ठीक इसी तरह संगीत में समय को बराबर मात्राओं ,में बांटने पर ताल बनती है. ताल बार बार दुहराई जाती है और हर बार अपने एंटी टुकड़े को पूरा कर समय के जिस टुकड़े से शुरू हुई थी उसी पर आकर मिलती है. हर भाग को मात्र कहते है. संगीत में समय को मात्र से मापा जाता है. तीन ताल में समय या लय के १६ भाग या मात्राए होती है. हर भाग को एक नाम देते है जिसे बोल कहते है. इन्ही बोलों को जब वाद्य यंत्र पर बजाया जाता है उन्हें ठेका कहते है. ताल की मात्राओ को विभिन्न भागों में बांटा जाता है जिससे गाने या बजाने वाले को यह मालूम रहे की वह कौन सी मात्रा  है और कितनी मात्राओ के बाद वह सम पर पहुचेगा. तालों में बोलों के छंद के हिसाब से उनके विभाग किये गए है. हिन्दुस्तानी संगीत में एक बहुत ही प्रचलित ताल तीन ताल का उदाहरण देखते है
धा धीं धिं धा | धा धीं धिं धा | धा तीं तिं ता | ता धिं धीं धा |
१६वीं मात्रा के बाद चक्र पूरा हो जाता है, लेकिन लय तभी बनती है जब १६वीं मात्रा के बाद फिर से पहली मात्रा से नयी शुरुवात हो. जहा से चक्र दुबारा शुरू होता है उसे सम कहा जाता है. इस तरह यह चक्र चलता रहता है. ताल में खाली और भरी दो शब्द महत्वपूर्ण है. ताल के उस भाग को भरी कहते है जिस पर बोल के हिसाब से अधिक बल देना है. भरी पर ताली दी जाती है. और जिसपे ताली नहीं दी जाती है उसे खाली कहते है. इससे गायक या वादक को सम के आने का आभास हो जाता है. ताल के अन्य विभागों को संख्या से बताया जाता है. जिसमे खाली के लिए शून्य लिखा जाता है. ताल लय को नियंत्रण में रखती है.
हिन्दुस्तानी संगीत में कई तालें प्रचलित है जैसे
दादरा (६)- धा धी न| धा ती ना |,
रूपक(७)- ती-ती-ना |धी-ना |धी ना|,
तीन ताल(१६)- धा धीं धिं धा | धा धीं धिं धा | धा तीं तिं ता | ता धिं धीं धा |
झपताल (१०)- धी-ना| धी-धी-ना |,ती-ना |धी-धी-ना|
कहरवा (८)- धा-गे-ना-ति|न-क-धी-न |,
एक ताल(१२)- धिं धिं धागे तिरकट |तू-ना-क-त्ता |धागे-तिरकट | धिं-ना |
चौताल(१२).- धा धा धिं ता| किट-धा-धिं-ता| तिट-कट | गदि-गन |

Saturday, November 9, 2013

थाट



थाट- सप्तक के १२ स्वरों में से ७ क्रमानुसार मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते हैं। थाट से राग उत्पन्न होते हैं। थाट को मेल भी कहा जाता है। थाट के कुछ लक्षण माने गये हैं- १) किसी भी थाट में कम से कम सात स्वरों का प्रयोग ज़रूरी है। २) थाट में स्वर स्वाभाविक क्रम में रहने चाहिये। अर्थात सा के बाद रे, रे के बाद ग आदि। ३) थाट को गाया ब्जाया नहीं जाता। इससे किसी राग की रचना की जाती है जिसे गाया बजाया जाता है। ४) एक थाट से कई रागों की उत्पत्ति हो सकती है। आज हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति में १० ही थाट माने जाते हैं।

विभिन्न थाटों के नाम व उनके स्वर-

(नोट: कोमल स्वरों के नीचे एक रेखा दिखायी जाती है, जैसे ग॒। तीव्र म के ऊपर एक रेखा दिखायी जाती है जैसे- म॑)

१) बिलावल थाट- सा, रे, ग, म, प, ध, नि

२) कल्याण- सा, रे,ग, म॑, प ध, नि

३) खमाज- सा, रे ग, म, प ध, नि॒

४) आसावरी- सा, रे, ग॒, म, प ध॒, नि॒

५) काफ़ी- सा, रे, ग॒,म, प, ध, नि॒

६) भैरवी- सा, रे॒, ग॒, म, प ध॒, नि॒

७) भैरव- सा, रे॒, ग, म, प, ध॒ नि

८) मारवा- सा, रे॒, ग, म॑, प, ध नि

९) पूर्वी- सा, रे॒, ग, म॑, प ध॒, नि

१०) तोड़ी- सा, रे॒, ग॒, म॑, प, ध॒, नि

राग- कम से कम पाँच और अधिक से अधिक ७ स्वरों से मिल कर बनता है राग। राग को गाया बजाया जाता है और ये कर्णप्रिय होता है। किसी राग विशेष को विभिन्न तरह से गा-बजा कर उसके लक्षण दिखाये जाते है, जैसे आलाप कर के या कोई बंदिश या गीत उस राग विशेष के स्वरों के अनुशासन में रहकर गा के आदि।

पकड़- पकड़ वह छोटा सा स्वर समुदाय है जिसे गाने-बजाने से किसी राग विशेष का बोध हो जाये। उदाहरणार्थ- प रे ग रे, .नि रे सा गाने से कल्याण राग का बोध होता है।

वर्ज्य स्वर- जिस स्वर का राग में प्रयोग नहीं होता है उसे वर्ज्य स्वर कहते हैं। जैसे कि राग भूपाली में सा, रे, ग, प, ध स्वर ही लगते हैं। अर्थात म और नि वर्ज्य स्वर हुये।

जाति- किसी भी राग कि जाति मुख्यत: तीन तरह की मानी जाती है। १) औडव - जिस राग मॆं ५ स्वर लगें २) षाडव- राग में ६ स्वरों का प्रयोग हो ३) संपूर्ण- राग में सभी सात स्वरों का प्रयोग होता हो इसे आगे और विभाजित किया जा सकता है। जैसे- औडव-संपूर्ण अर्थात किसी राग विशेष में अगर आरोह में ५ मगर अवरोह में सातों स्वर लगें तो उसे औडव-संपूर्ण कहा जायेगा। इसी तरह, औडव-षाडव, षाडव-षाडव, षाडव-संपूर्ण, संपूर्ण-षाडव आदि रागों की जातियाँ हो सकती हैं।

वादी स्वर- राग का सबसे महत्वपूर्ण स्वर वादी कहलाता है। इसे राग का राजा स्वर भी कहते हैं। इस स्वर पर सबसे ज़्यादा ठहरा जाता है और बार बार प्रयोग किया जाता है। किन्हीं दो रागों में एक जैसे स्वर होते हुये भी उन में वादी स्वर के प्रयोग के द्वारा आसानी से फ़र्क बताया जा सकता है। जैसे कि राग भूपाली में और राग देशकार में एक जैसे स्वर लगते हैं- सा, रे, ग, प, ध मगर राग भूपाली में ग वादी है और राग देशकार में ध स्वर को वादी माना गया है। इस तरह से दोनों रागों के स्वरूप बदल जाते हैं।

संवादी स्वर- राग का द्वितीय महत्वपूर्ण स्वर होता है संवादी। इसे वादी से कम मगर अन्य स्वरों से ज़्यादा प्रयोग किया जाता है। इसे वादी स्वर का सहायक या राग का मंत्री स्वर भी कहते हैं। वादी और संवादी में ४-५ स्वरों की दूरी होती है। जैसे अगर किसी राग का वादी स्वर है रे तो संवादी शायद ध या नि हो सकता है।

अनुवादी स्वर- वादी और संवादी के अलावा राग में प्रयुक्त होने वाले सभी अन्य स्वर अनुवादी कहलाते हैं।

विवादी स्वर- जो स्वर राग में प्रयुक्त नहीं होता उसे विवादी कहते हैं। कभी कभी जब गायक या बजाने वाला राग का स्वरूप स्थापित कर लेता है, तो राग की सुंदरता बढ़ाने के लिये विवादी स्वर का प्रयोग कर सकता है, मगर विवादी स्वर का बार बार प्रयोग राग का स्वरूप बिगाड़ देता है।

आलाप- राग के स्वरों को विलम्बित लय में विस्तार करने को आलाप कहते हैं। आलाप को आकार की सहायता से या नोम, तोम जैसे शब्दों का प्रयोग करके किया जा सकता है। गीत के शब्दों का प्रयोग कर के जब आलाप किया जाता है तो उसे बोल-आलाप कहते हैं।

तान- राग के स्वरों को द्रुत गति से विस्तार करने को तान कहते हैं। तानों को आकार में या गीत के बोल के साथ (बोल-तान) अथवा स्वरों के प्रयोग द्वारा किया जा सकता है।



आइये अब संगीत संबंधी कुछ परिभाषाओं पर ध्यान दें।

संगीत- बोलचाल की भाषा में सिर्फ़ गायन को ही संगीत समझा जाता है मगर संगीत की भाषा में गायन, वादन व नृत्य तीनों के समुह को संगीत कहते हैं। संगीत वो ललित कला है जिसमें स्वर और लय के द्वारा हम अपने भावों को प्रकट करते हैं। कला की श्रेणी में ५ ललित कलायें आती हैं- संगीत, कविता, चित्रकला, मूर्तिकला और वास्तुकला। इन ललित कलाओं में संगीत को सर्वश्रेष्ठ माना गया है।

संगीत पद्धतियाँ- भारतवर्ष में मुख्य दो प्रकार का संगीत प्रचार में है जिन्हें संगीत पद्धति कहते हैं। उत्तरी संगीत पद्धति व दक्षिणी संगीत पद्धति । ये दोनों पद्धतियाँ एक दूसरे से अलग ज़रूर हैं मगर कुछ बातें दोनों में समान रूप से पायी जाती हैं।

ध्वनि- वो कुछ जो हम सुनते हैं वो ध्वनि है मगर संगीत का संबंध केवल उस ध्वनि से है जो मधुर है और कर्णप्रिय है। ध्वनि की उत्पत्ति कंपन से होती है। संगीत में कंपन (वाइब्रेशन) को आंदोलन कहते हैं। किसी वाद्य के तार को छेड़ने पर तार पहले ऊपर जाकर अपने स्थान पर आता है और फिर नीचे जाकर अपने स्थान पर आता है। इस प्रकार एक आंदोलन पूरा होता है। एक सेकंड मॆं तार जितनी बार आंदोलित होता है, उसकी आंदोलन संख्या उतनी मानी जाती है। जब किसी ध्वनि की आंदोलन एक गति में रहती है तो उसे नियमित और जब आंदोलन एक रफ़्तार में नहीं रहती तो उसे अनियमित आंदोलन कहते हैं। इस तरह जब किसी ध्वनि की अंदोलन कुछ देर तक चलती रहती है तो उसे स्थिर आंदोलन और जब वो जल्द ही समाप्त हो जाती है तो उसे अस्थिर आंदोलन कहते हैं।

नाद- संगीत में उपयोग किये जाने वाली मधुर ध्वनि को नाद कहते हैं। अगर ध्वनि को धीरे से उत्पन्न किया जाये तो उसे छोटा नाद और ज़ोर से उत्पन्न किया जाये तो उसे बड़ा नाद कहते हैं।

श्रुति- एक सप्तक (सात स्वरों का समुह) में सा से नि तक असंख्य नाद हो सकते हैं। मगर संगीतज्ञों का मानना है कि इन सभी नादों में से सिर्फ़ २२ ही संगीत में प्रयोग किये जा सकते हैं, जिन्हें ठीक से पहचाना जा सकता है। इन बाइस नादों को श्रुति कहते हैं।

स्वर- २२ श्रुतियों में से मुख्य बारह श्रुतियों को स्वर कहते हैं। इन स्वरों के नाम हैं - सा(षडज), रे(ऋषभ), ग(गंधार), म(मध्यम), प(पंचम), ध(धैवत), नि(निषाद) अर्थात सा, रे, ग, म, प ध, नि स्वरों के दो प्रकार हैं- शुद्ध स्वर और विकृत स्वर। बारह स्वरों में से सात मुख्य स्वरों को शुद्ध स्वर कहते हैं अर्थात इन स्वरों को एक निश्चित स्थान दिया गया है और वो उस स्थान पर शुद्ध कहलाते हैं। इनमें से ५ स्वर ऐसे हैं जो शुद्ध भी हो सकते हैं और विकृत भी अर्थात शुद्ध स्वर अपने निश्चित स्थान से हट कर थोड़ा सा उतर जायें या चढ़ जायें तो वो विकृत हो जाते हैं। उदाहरणार्थ- अगर शुद्ध ग आठवीं श्रुति पर है और वो सातवीं श्रुति पर आ जाये और वैसे ही गाया बजाया जाये तो उसे विकृत ग कहेंगे। जब कोई स्वर अपनी शुद्ध प्रकार से नीचे होता है तो उसे कोमल विकृत और जब अपने निश्चित स्थान से ऊपर हट जाये और गाया जाये तो उसे तीव्र कहते हैं। सा और प अचल स्वर हैं जिनके सिर्फ़ शुद्ध रूप ही हो सकते हैं।

सप्तक- क्रमानुसार सात शुद्ध स्वरों के समुह को सप्तक कहते हैं। ये सात स्वर हैं- सा, रे, ग, म, प, ध, नि । जैसे-जैसे हम सा से ऊपर चढ़ते जाते हैं, इन स्वरों की आंदोलन संख्या बढ़ती जाती है। 'प' की अंदोलन संख्या 'सा' से डेढ़ गुनी ज़्यादा होती है। 'सा' से 'नि' तक एक सप्तक होता है, 'नि' के बाद दूसरा सप्तक शुरु हो जाता है जो कि 'सा' से ही शुरु होगा मगर इस सप्तक के 'सा' की आंदोलन संख्या पिछले सप्तक के 'सा' से दुगुनी होगी। इस तरह कई सप्तक हो सकते हैं मगर गाने बजाने में तीन सप्तकों का प्रयोग करते हैं।
१) मन्द्र २) मध्य ३) तार । संगीतज्ञ साधारणत: मध्य सप्तक में गाता बजाता है और इस सप्तक के स्वरों का प्रयोग सबसे ज़्यादा करता है। मध्य सप्तक के पहले का सप्तक मंद्र और मध्य सप्तक के बाद आने वाला सप्तक तार सप्तककहलाता है।

सा, रे, ग, म, प ध, नि

सा, रे, ग, म, प ध, नि

सा और प को अचल स्वर माना जाता है। जबकि अन्य स्वरों के और भी रूप हो सकते हैं। जैसे 'रे' को 'कोमल रे' के रूप में गाया जा सकता है जो कि शुद्ध रे से अलग है। इसी तरह 'ग', 'ध' और 'नि' के भी कोमल रूप होते हैं। इसी तरह 'शुद्ध म' को 'तीव्र म' के रूप में अलग तरीके से गाया जाता है। 


गायक या वादक गाते या बजाते समय मूलत: जिस स्वर सप्तक का प्रयोग करता है उसे मध्य सप्तक कहते हैं। ठीक वही स्वर सप्तक, जब नीचे से गाया जाये तो उसे मंद्र, और ऊपर से गाया जाये तो तार सप्तक कह्ते हैं। मन्द्र स्वरों के नीचे एक बिन्दी लगा कर उन्हें मन्द्र बताया जाता है। और तार सप्तक के स्वरों को, ऊपर एक बिंदी लगा कर उन्हें तार सप्तक के रूप में दिखाया जाता है। इसी तरह अति मंद्र और अतितार सप्तक में भी स्वरों को गाया-बजाया जा सकता है।
अर्थात- ध़ ऩि सा रे ग म प ध नि सां रें गं...

संगीत के नये विद्यार्थी को सबसे पहले शुद्ध स्वर सप्तक के सातों स्वरों के विभिन्न प्रयोग के द्वारा आवाज़ साधने को कहा जाता है। इन को स्वर अलंकारकहते हैं।

आइये कुछ अलंकार देखें

१) सा रे ग म प ध नि सां (आरोह)

सां नि ध प म ग रे सा (अवरोह)

(यहाँ आखिरी का सा तार सप्तक का है अत: इस सा के ऊपर बिंदी लगाई गयी है)

इस तरह जब स्वरों को नीचे से ऊपर सप्तक में गाया जाता है उसे आरोह कहते हैं। और ऊपर से नीचे गाते वक्त स्वरों को अवरोह में गाया जाना कहते हैं। 

और कुछ अलंकार देखिये-

२)सासा रेरे गग मम पप धध निनि सांसां । 
सांसां निनि धध पप मम गग रेरे सासा।
३) सारेग, रेगम, गमप, मपध, पधनि, धनिसां। 
सांनिध, निधप, धपम, पमग, मगरे, गरेसा।

४) सारे, रेग, गम, मप, पध, धनि, निसां। 
सांनि, निध, धप, पम, मग, गरे, रेसा।

५) सारेगमप, रेगमपध, गमपधनि, मपधनिसां। 
सांनिधपम, निधपमग, धपमगरे पमगरेसा।

६)सारेसारेग, रेगरेगम, गमगमप, मपमपध, पधपधनि, धनिधनिसां। 
सांनिसांनिध, निधनिधप, धपधपम, पमपमग, मगमगरे, गरेगरेसा।

७)सारेगसारेगसारेसागरेसा, रेगमरेगमरेगरेमगरे, गमपगमपगमगपमग, मपधमपधमपमधपम, पधनिपधनिपधपनिधप, धनिसांधनिसांधनिधसांनिध, निसांरेनिसांरेनिसांनिरेंसांनि, सांरेंगंसांरेंगंसांरेंसांगंरेंसां। 

सांरेंगंसांरेंगंसांरेंसांगंरेंसां, निसांरेनिसांरेनिसांनिरेंसांनि,धनिसांधनिसांधनिधसांनिध, पधनिपधनिपधपनिधप, मपधमपधमपमधपम, गमपगमपगमगपमग, रेगमरेगमरेगरेमगरे, सारेगसारेगसारेसागरेसा।

Friday, November 8, 2013

ताल के हो ?

ताल



संगीतमा समयमा आधारित एक निश्चित ढाँचालाई ताल भनिन्छ। शास्त्रीय संगीतमा तालको ठूलो भूमिका हुन्छ। प्राचीन भारतीय संगीतमा मृदंग, घटम् इत्यादिको प्रयोग हुन्छ। आधुनिकहिन्दुस्तानी संगीतमा तबला सर्वाधिक लोकप्रिय छ।
भारतीय शास्त्रीय संगीतमा प्रयोगमा ल्याइएको केहि तालहरू यस प्रकार छन्

संगीत में समय पर आधारित एक निश्चित ढांचे को ताल कहा जाता है। शास्त्रीय संगीत में ताल का बड़ी अहम भूमिका होती है। संगीत में ताल देने के लिये तबले, मृदंगढोल और मँजीरे आदि का व्यवहार किया जाता है । प्राचीन भारतीय संगीत में मृदंग,घटम् इत्यादि का प्रयोग होता है। आधुनिक हिन्दुस्तानी संगीत में तबला सर्वाधिक लोकप्रिय है।
भारतीय शास्त्रीय संगीत में प्रयुक्त कुछ तालें इस प्रकार हैं : दादराझपतालत्रितालएकताल। तंत्री वाद्यों की एक शैली ताल के विशेष चलन पर आधारित है। मिश्रबानी में डेढ़ और ढ़ाई अंतराल पर लिए गए मिज़राब के बोल झप-ताल, आड़ा चार ताल और झूमरा का प्रयोग करते हैँ।
संगीत के संस्कृत ग्रंथों में ताल दो प्रकार के माने गए हैं—मार्ग और देशी । भरत मुनि के मत से मार्ग ६० हैं— चंचत्पुट, चाचपुट, षट्पितापुत्रक, उदघट्टक, संनिपात, कंकण, कोकिलारव, राजकोलाहल, रंगविद्याधर, शचीप्रिय, पार्वतीलोचन, राजचूड़ामणि, जयश्री, वादकाकुल, कदर्प, नलकूबर, दर्पण, रतिलीन, मोक्षपति, श्रीरंग, सिंहविक्रम, दीपक, मल्लिकामोद, गजलील, चर्चरी, कुहक्क, विजयानंद, वीरविक्रम, टैंगिक, रंगाभरण, श्रीकीर्ति, वनमाली, चतुर्मुख, सिंहनंदन, नंदीश, चंद्रबिंब, द्वितीयक, जयमंगल, गंधर्व, मकरंद, त्रिभंगी, रतिताल, बसंत, जगझंप, गारुड़ि, कविशेखर, घोष, हरवल्लभ, भैरव, गतप्रत्यागत, मल्लताली, भैरव- मस्तक, सरस्वतीकंठाभरण, क्रीड़ा, निःसारु, मुक्तावली, रंग- राज, भरतानंद, आदितालक, संपर्केष्टक । इसी प्रकार १२० देशी ताल गिनाए गए हैं। इन तालों के नामों में भिन्न भिन्न ग्रंथों में विभिन्नता देखी जाती हैं।

Wednesday, November 6, 2013

के हो शास्त्रीय सङ्गीत ?

शास्त्रीय संगीत


शास्त्रीयसङ्गीत १३ औं शताब्दीदेखि मुसलमान र हिन्दू संस्कृतिको सम्मिश्रणबाट विकसित हँुदै आएको उत्तर-भारतीय शास्त्रीयसङ्गीत जसलाई 'हिन्दुस्तानी शास्त्रीयसङ्गीत' पनि भन्ने गरिन्छ। हिन्दुस्तानी शास्त्रीयसङ्गीत भन्नाले सितार, सरोद, हार्मनियम, तबला आदि जस्ता बाजाहरू। त्यसैगरी ध्रूपद, खयाल, ठुमरी, गजल, भजन, कर्बाली जस्ता गायनशैली यस सङ्गीतअन्तर्गत् पर्दछन्। यी विभिन्न राग तथा तालहरूमा संयोजन गरेर गाउने या बजाउने गरिन्छ। हिन्दुस्तानी शास्त्रीयसङ्गीत पूर्वेली संस्कृतिअन्तर्गत् दक्षिण एसियाकै प्रतिनिधित्व गर्ने शास्त्रीयसङ्गीत हो। नेपालमा पनि शताब्दियौँदेखि चल्दै आएको छ। बाहृय मुलुकमा यसलाई 'इन्डियन क्लासिकल म्यूजिक' भनिन्छ। हामी यसलाई हाम्रो मुलुकभित्र 'शास्त्रीयसङ्गीत' मात्र भन्ने गर्छौं। पुस्तौंदेखि चलिआएको हिसाबले हामी यसलाई हाम्रो देशको कला सम्पदाको रूपमा पनि लिन्छौं।

नेपालमा शास्त्रीय संगीत

सन् १८५७मा भारतमा सैनिक विद्रोहपछि विभिन्न प्रान्तमा शासन चलाइरहेका हिन्दू राजा, महाराजा तथा मुसलमान नवाबहरू पलायन भएर गए। यसको प्रत्यक्ष असर शास्त्रीयसङ्गीतमा पनि देखियो। कारण शास्त्रीयसङ्गीत सधैँ कुनै न कुनै शासकहरूको संरक्षणमा हुन्थ्यो। त्यतिबेलाका शास्त्रीयसङ्गीतका कलाकारहरू राजाश्रय पाएर बसेका हुन्थे। दरबारमा उनीहरूको ठूलो पद र इज्जत हुन्थ्यो। कलाकारहरू पलायन हँुदै गइरहेको सरकारबाट उदाउँदै गइरहेको शासकतिर संरक्षण तथा आश्रयका लागि सर्दै जान्थ्यो। जस्तै १३ औं शताब्दीदेखि दिल्ली केन्दि्रत सरकार दिल्ली सुर्तानेट, १६ औंँ शताब्दि देखि दिल्ली, आगरा केन्दि्रत मुगल साम्राज्य र मुगलशासन पनि विस्तारै पलायन हुँदै गएपछि १८ औँ शताब्दीको अन्ततिर उत्तर-भारतका विभिन्न प्रान्तहरूका राज्यहरू उदाउन थाले। त्यहाँका दरबार, महलहरूमा कलाकारले फेरि राजाश्रय पाएका थिए।

यसरी इतिहासमा शास्त्रीयसङ्गीतले क्रमबद्ध रूपमा राजाश्रय पाउँदै जानु नै उत्तर-भारतीय सङ्गीत पनि क्रमबद्ध रूपमा विकास हुँदै जानुको मुख्य कारण थियो। एक्कासी सन् १८५७ पछि सबै प्रान्तीय शासकहरू कमजोर हँुदै गए। यसको कारण शास्त्रीयसङ्गीतले कुनै शक्तिबाट संरक्षण नपाएर भौँतारिरहनुपरेको थियो। तर पनि शास्त्रीयसङ्गीतको अस्तित्व, परम्परा अनि कलाकारहरूले आफ्नो आर्थिक स्थितिलाई जोगाइराख्न कतिपय कलाकारहरू दरबारबाट सडक, कोठी, भट्टी, बेश्याबृत्तिको क्षेत्रमा समेत सङ्गीतको उपयोग गर्न बाध्य भए। कोठीमा नाच्ने तबायफदेखि थिएटर तथा सडकमा नाच्ने नौटङ्कीहरूलाई सिकाउनुपर्ने र उनीहरूसँग गाउनु, बजाउनु पर्ने अवस्थासमेत सिर्जना भएर आयो। समाजमा यसलाई हेर्ने दृष्टिकोण नै फरक भइसकेको थियो। त्यस्तो अवस्थामा नेपालमा भने त्यसबेला राणाशासकहरूले यसलाई दरबारमा आश्रय दिएर शास्त्रीयसङ्गीतकर्मीहरूको दयनीय अवस्थालाई आशाको दियोमा परिणत गरिदिएका थिए।
सन् १८८५ पछि वीरशमसेरको पालामा त नेपालमा भारतबाट एक्कासी हुरी आएझैँ गरी शास्त्रीय सङ्गीतकर्मीहरूको जमात नै भेला हुन थाल्यो। वीरशमसेरको दरबारमा मात्र नभई उनका भाइ-भारदारहरूका दरबारमा समेत भारतीय सङ्गीतका ऐतिहासिक कलाकारहरू मानिने त्यतिबेलाका भारतीय सङ्गीतकर्मीहरूले आश्रय पाएका थिए भने दिनहुँ कुनै न कुनै दरबारमा सङ्गीतको चर्चा र साङ्गीतिक कार्यक्रम भइरहन्थ्यो। तर शास्त्रीय सङ्गीतको चर्चा हुँदा पानाहरूमा भारतको भूमिका मात्र लेखेको पाइन्छ, नेपालको भूमिकाको बारेमा त्यति लेखेको पाइदैन। शास्त्रीयसङ्गीतको त्यो १९ आँैं शताब्दीको संवेदनशील अवस्थामा नेपालमा जतिपनि शास्त्रीयसङ्गीत विषयक भेलाहरू भए, कलाकारहरूले दरबारी आश्रय पाए, नयाँ कलाकारहरू जन्मिए, राणाशासकहरूको संरक्षणबाट जुन हौसला तथा प्रोत्साहन उनीहरूले पाए ती सबै कुराहरूले त्यसपछिका साङ्गीतिक विकासक्रमलाई जोड्न अवश्यमेव मद्दत गराए।
राणाशासनको पतनसँगै शास्त्रीयसङ्गीतले फेरि नेपालको राजाश्रय गुमाउनुपर्‍यो। नेपालमा वि. सं. २००७ सालपछि रेडियो नेपालको स्थापनासँगै आधुनिक गीत-सङ्गीतले बढी प्रश्रय पाउँदै गए सन् १९४७को स्वतन्त्रता पछि भारतीयहरूले उनीहरूले यसको महत्व पनि राम्ररी बुझिसकेका थिए। यतिन्जेलसम्ममा भारतीय सङ्गीतका विद्वान विष्णुनारायण भात्खण्डेले त लिखित रूपमा शास्त्रीयसङ्गीतलाई आधुनिक ढङ्गले शास्त्रीयकरण मात्र हैन भारतीयकरण गर्न भ्याइसकेका थिए। त्यसपछि प्रयोगात्मक हिसाबले पनि ६०को दशकतिर रविशङ्करजस्ता कलाकारको उदय र पश्चिमी देशमा भारतीय सङ्गीतको प्रचार-प्रसारको सुरूआतले थुप्रै भारतीय सङ्गीतकर्मीहरूले समेत पश्चिमेली राष्ट्रहरूमा गएर अनगिन्ती साङ्गीतिक कार्यक्रम प्रस्तुत गर्ने मौका पाए भने विदेशी शिष्यहरूसमेत बनाउन सकेका थिए। सुस्त गतिमा भएपनि नेपालमा समेत शास्त्रीय सङ्गीतको विकास हुँदै गयो। मेलवादेवी, उस्ताद सेतू राम, नरराज ढकाल, चन्द्रराज शर्मा, गुरूदेव कामत आदिले नेपाली शास्त्रीय सङ्गीतको विकासमा ठूलो योगदान पुर्‍याउँदै आएका छन्

Sunday, November 3, 2013

क्या है सरगम?

‘बजे सरगम हर तरफ से…’ कितनी ही बार दूरदर्शन पर इसे हमने सुना होगा. लेकिन क्या हमें पाता है की ये सरगम क्या है? क्या होता है तीव्र और कोमल स्वर? आईये आज जानते है.
संगीत के सात स्वर है ये सभी जानते है. जो है- षङज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद. इन्ही नामो के पहले अक्षर से सा रे गा मा लिया गया है. ये सभी शुद्ध स्वर माने जाते है.इनमे स और प अचल माने जाते है क्योंकि ये अपनी जगह से जरा भी नहीं हटते. बाकी पांच स्वरो को विकृत या विकारी स्वर कहते है जो अपने स्थान से हट सकते है. जब स्वर अपने स्थान से थोड़ा नीचे खिसकता है तो वह कोमल स्वर हो जाता है. और अगर ऊपर खिसकता है तो वह तीव्र स्वर हो जाता है. रे ग ध नि जब नीचे खिसकते है तो कोमल बन जाते है. और म ऊपर पहुँच कर तीव्र हो जाता है. इस तरह सात शुद्ध स्वर, चार कोमल स्वर, और एक तीव्र स्वर, कुल मिला कर बारह स्वर तैयार होते है जिन्हें सरगम कहा जाता है.
शुद्ध स्वर- सा रे ग म प ध नि सा
कोमल स्वर- सा रे ग म प ध नि सा
तीव्र स्वर- सा रे गा म प ध नि सा
सप्तक
सप्तक का अर्थ होता है सात. सात शुद्ध स्वर है इसलिए यह नाम पड़ा. लेकिन ध्वनि की ऊंचाई और निचाई के आधार पर संगीत में ३ तरह से सप्तक माने गए है. साधारण ध्वनि को मध्य सप्तक करते है. यदि मध्य सप्तक से ऊपर है तो तार सप्तक और नीचे है तो मंद्र सप्तक. तार सप्तक में ध्वनि ऊँची होती है और बोलने में तालु पर जोर पड़ता है. जबकि मध्य सप्तक के स्वरों को बोलने में गले पर जोर पड़ता है. और मंद्र सप्तक में ह्रदय पर जोर पड़ता है.